पुतिन की धमकी, जर्मनी की हिम्मत – शांति से जंग की ओर ?

जर्मनी ने हाल ही में यूक्रेन को लंबी दूरी की मिसाइलें देने का फैसला किया है, और ये खबर दुनिया भर में हलचल मचा रही है। ये फैसला जर्मनी के लिए कोई छोटा-मोटा कदम नहीं है; ये एक ऐसा मोड़ है जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की उसकी सैन्य संयम की नीति को चुनौती देता है। इस फैसले के पीछे एक जर्मन राजनेता की अहम भूमिका है, जो इस कदम की वकालत कर रहे हैं, लेकिन उन्हें अपने ही देश में तगड़ा विरोध झेलना पड़ रहा है। शांतिवादी समूह और दक्षिणपंथी संगठन इस फैसले के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं, क्योंकि उन्हें डर है कि रूस इसका जवाब देगा। इस बीच, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की धमकियां और नाटो-रूस तनाव की आशंका ने माहौल को और गर्म कर दिया है। आइए, इस कहानी को गहराई से समझते हैं कि कैसे ऐतिहासिक गिल्ट, आर्थिक दबाव और गठबंधन की वफादारी ने जर्मनी को इस साहसी रुख तक पहुंचाया और इसका यूरोप पर क्या असर होगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और बदलता रुख

जर्मनी का इतिहास द्वितीय विश्व युद्ध की भारी गलतियों से भरा पड़ा है। नाज़ी दौर की तबाही के बाद, जर्मनी ने अपनी सैन्य नीति में संयम बरता और शांति को अपनी पहचान बनाया। युद्ध के बाद बनी सरकारों ने हमेशा इस बात का ख्याल रखा कि जर्मनी किसी बड़े सैन्य विवाद में न उलझे। लेकिन यूक्रेन-रूस युद्ध ने सब कुछ बदल दिया है। 26 मई 2025 को जर्मन चांसलर फ्रेडरिक मर्ज़ ने ऐलान किया कि जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका ने यूक्रेन को दी जाने वाली हथियारों की रेंज पर लगी पाबंदियां हटा दी हैं। इसका मतलब है कि यूक्रेन अब इन हथियारों का इस्तेमाल रूस के सैन्य ठिकानों पर हमला करने के लिए कर सकता है।

मर्ज़, जो अभी कुछ हफ्तों पहले ही सत्ता में आए हैं, पहले विपक्ष में रहते हुए यूक्रेन को टॉरस मिसाइलें देने की वकालत कर चुके हैं। ये टॉरस मिसाइलें कोई मामूली हथियार नहीं हैं; इनकी रेंज 500 किलोमीटर से ज्यादा है और ये रूस के अंदरूनी इलाकों में सैन्य ठिकानों को निशाना बना सकती हैं। मर्ज़ का कहना है कि यूक्रेन को अपनी रक्षा के लिए हरसंभव मदद दी जानी चाहिए, क्योंकि रूस “शहरों, स्कूलों, अस्पतालों और वृद्धाश्रमों” पर हमले कर रहा है, जबकि यूक्रेन सिर्फ सैन्य ठिकानों को निशाना बनाता है।

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घरेलू विरोध

लेकिन जर्मनी में हर कोई मर्ज़ के इस फैसले से खुश नहीं है। शांतिवादी समूह, जो जर्मनी की शांति की नीति के प्रबल समर्थक रहे हैं, इसे युद्ध को और भड़काने वाला कदम मानते हैं। उनका कहना है कि लंबी दूरी की मिसाइलें देना नाटो और रूस के बीच सीधे टकराव को न्योता देगा। दूसरी तरफ, दक्षिणपंथी समूह जैसे कि अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (AfD) इस फैसले को रूस की जवाबी कार्रवाई का खतरा बता रहे हैं। पुतिन ने पहले ही चेतावनी दी है कि अगर पश्चिमी देश यूक्रेन को ऐसे हथियार देंगे, तो ये उनकी सीधी भागीदारी मानी जाएगी।

बर्लिन और अन्य बड़े शहरों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। शांतिवादी संगठनों ने “युद्ध नहीं, शांति चाहिए” जैसे नारे लगाए, जबकि दक्षिणपंथी समूहों ने “जर्मनी को युद्ध में न धकेलो” जैसे बैनर लहराए। सोशल मीडिया पर भी बहस छिड़ी हुई है। एक एक्स पोस्ट में दावा किया गया कि टॉरस मिसाइलें यूक्रेनी सैनिकों द्वारा नहीं, बल्कि नाटो के कर्मियों द्वारा ऑपरेट की जाएंगी, जिसे कई लोगों ने जर्मनी की ओर से “युद्ध की घोषणा” करार दिया। हालांकि, इस दावे की कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है, और इसे फिलहाल अफवाह माना जा रहा है।

ऐतिहासिक गिल्ट का बोझ

जर्मनी का ये फैसला उस ऐतिहासिक गिल्ट से भी टकराता है, जो द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से देश के सामूहिक चेतना में बसा हुआ है। जर्मन समाज में युद्ध और हिंसा के प्रति गहरी संवेदनशीलता है। कई नागरिकों का मानना है कि हथियारों की सप्लाई बढ़ाना जर्मनी को फिर से एक सैन्य शक्ति के रूप में खड़ा कर सकता है, जो उनके लिए अस्वीकार्य है। शांतिवादी कार्यकर्ता अरुंधति धुरु जैसे लोग कहते हैं कि युद्ध कभी समाधान नहीं हो सकता। उनका तर्क है कि रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे संघर्षों से सिर्फ तबाही और आर्थिक नुकसान होता है, जैसा कि अफगानिस्तान और सीरिया जैसे देशों में देखा गया है।

आर्थिक दबाव और गठबंधन की वफादारी

जर्मनी का ये कदम सिर्फ नैतिक या ऐतिहासिक नहीं, बल्कि आर्थिक और सामरिक दबावों से भी प्रेरित है। जर्मनी यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन रूस से गैस और तेल की आपूर्ति पर उसकी निर्भरता ने उसे मुश्किल में डाला है। रूस ने पहले ही यूरोप को ऊर्जा आपूर्ति कम कर दी है, जिससे जर्मनी में ऊर्जा की कीमतें आसमान छू रही हैं। इसके बावजूद, नाटो और यूरोपीय संघ के प्रति जर्मनी की वफादारी ने उसे इस फैसले की ओर धकेला है। नाटो के सहयोगी देश, खासकर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस, पहले ही यूक्रेन को लंबी दूरी की मिसाइलें दे चुके हैं। अगर जर्मनी पीछे रहता, तो गठबंधन में उसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ सकते थे।

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यूरोप पर असर

जर्मनी के इस फैसले का असर पूरे यूरोप पर पड़ रहा है। नाटो के सदस्य देश अब इस बात पर विचार कर रहे हैं कि क्या ये कदम रूस के साथ तनाव को और बढ़ाएगा। फ्रांस और ब्रिटेन ने पहले ही SCALP/Storm Shadow मिसाइलें यूक्रेन को दी हैं, और अमेरिका ने भी अपनी हथियारों की पाबंदियों को ढीला कर दिया है। लेकिन जर्मनी की टॉरस मिसाइलें अपनी सटीकता और ताकत के लिए जानी जाती हैं, और अगर इन्हें यूक्रेन को दिया गया, तो ये युद्ध के मैदान में बड़ा बदलाव ला सकती हैं।

हालांकि, यूरोपीय नेताओं में एक डर ये भी है कि रूस इस फैसले को नाटो की सीधी चुनौती के रूप में लेगा। पुतिन ने पहले ही कहा है कि वो शांति वार्ता को कमजोरी की निशानी मानते हैं। रूस ने हाल ही में यूक्रेन पर 355 ड्रोनों का हमला किया, जिसमें 6 लोग मारे गए और 24 घायल हुए। इससे साफ है कि रूस अपनी आक्रामकता कम करने के मूड में नहीं है।

जर्मनी का ये फैसला एक तलवार की धार पर चलने जैसा है। एक तरफ, ये यूक्रेन के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और नाटो के साथ एकजुटता दिखाता है। दूसरी तरफ, ये घरेलू विरोध, रूसी जवाबी कार्रवाई और युद्ध के और भड़कने का खतरा बढ़ाता है। मर्ज़ और उनकी सरकार के लिए ये एक बड़ा इम्तिहान है। क्या जर्मनी अपने ऐतिहासिक गिल्ट और शांतिवादी मूल्यों को पीछे छोड़कर एक नई सैन्य भूमिका अपनाएगा? या फिर ये कदम यूरोप को एक बड़े संघर्ष की ओर ले जाएगा? आने वाले दिन ही बताएंगे कि जर्मनी का ये साहसी रुख उसे कहां ले जाता है।

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