जब बात इतिहास की आती है, तो भारत और पाकिस्तान के स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्य पुस्तकों का जिक्र अपने आप में एक कहानी बन जाता है। 1947 का बंटवारा, जो न सिर्फ़ ज़मीन को बांट गया, बल्कि दिलों और दिमागों को भी दो हिस्सों में तोड़ गया, आज भी दोनों देशों के स्कूलों में अलग-अलग नज़रिए से पढ़ाया जाता है। ये लेख इस बात की पड़ताल करता है कि कैसे भारत और पाकिस्तान की पाठ्यपुस्तकें, इतिहास का पाठ्यक्रम, और बंटवारे, युद्धों, और राष्ट्रीय नायकों को पेश करने का तरीका, दोनों देशों की नई पीढ़ी की सोच और एक-दूसरे के प्रति नज़रिए को प्रभावित करता है।
बंटवारे की कहानी: दो अलग किताबें, दो अलग नज़रिए
1947 का बंटवारा दोनों देशों के इतिहास का एक ऐसा पन्ना है, जिसे पढ़ते वक्त दोनों तरफ की किताबें अलग-अलग कहानियां सुनाती हैं। भारत की NCERT किताबों में बंटवारे को एक त्रासदी के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच हिंसा और लाखों लोगों के विस्थापन पर ज़ोर दिया जाता है। किताबें बताती हैं कि कैसे महात्मा गांधी ने एकजुट भारत के लिए संघर्ष किया, लेकिन मुस्लिम लीग, खासकर मोहम्मद अली जिन्ना की अगुआई में, एक अलग राष्ट्र की मांग ने बंटवारे को जन्म दिया। हाल के सालों में, खासकर 2005 के नेशनल Curriculam Framework के बाद, भारत की किताबों में बंटवारे की मानवीय त्रासदी को ज़्यादा गहराई से दिखाया जाने लगा है। मसलन, उर्वशी बुटालिया की किताब The Other Side of Silence को हाई स्कूल के सिलेबस में शामिल किया गया, जिसमें बंटवारे के दौरान हुई हिंसा और बलात्कार की कहानियां शामिल हैं। ये कदम दिखाता है कि भारत अब बंटवारे को सिर्फ राजनीतिक नज़रिए से नहीं, बल्कि सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण से भी समझने की कोशिश कर रहा है।
दूसरी तरफ, पाकिस्तान की पाठ्य पुस्तकें, खासकर पंजाब Textbook बोर्ड की किताबें, बंटवारे को एक ज़रूरी और सही कदम के तौर पर पेश करती हैं। इन किताबों में जिन्ना को एक नायक के रूप में दिखाया जाता है, जिन्होंने मुस्लिम समुदाय को “हिंदू-प्रभुत्व” से आज़ादी दिलाई। भारत को अक्सर “धोखेबाज़” और “दुश्मन” के तौर पर चित्रित किया जाता है, और बंटवारे की हिंसा के लिए हिंदूओं को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। मिसाल के तौर पर, एक पाकिस्तान छात्र नोमान अफ़ज़ल का कहना है कि उसकी किताबों ने उसे सिखाया कि बंटवारे की हिंसा के लिए “विश्वासघाती हिंदू” ज़िम्मेदार थे। इन किताबों में गांधी का जिक्र मुश्किल से होता है, और अगर होता है, तो उन्हें एक हिंदू नेता के तौर पर दिखाया जाता है, न कि स्वतंत्रता संग्राम के नायक के रूप में।
युद्धों का चित्रण: जीत हमारी, हार उनकी
भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्धों—1947, 1965, 1971, और 1999 के कारगिल युद्ध—को भी दोनों देशों की किताबें अपने-अपने तरीके से पेश करती हैं। भारत की किताबों में 1971 का युद्ध एक बड़ी जीत के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें भारत ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आज़ादी दिलाने में मदद की। पाकिस्तान की किताबों में इसे “भारत की साज़िश” के तौर पर चित्रित किया जाता है, और बांग्लादेश के अलग होने को एक राष्ट्रीय अपमान के रूप में दिखाया जाता है।
1965 के युद्ध को लेकर भी दोनों देशों की कहानियां अलग हैं। भारत की किताबें इसे एक रक्षात्मक जीत के रूप में पेश करती हैं, जहां भारत ने पाकिस्तान के आक्रमण को नाकाम किया। वहीं, पाकिस्तान की किताबें दावा करती हैं कि उनकी सेना ने भारत को सबक सिखाया। एक भारतीय इतिहास शिक्षक आशीष ढकान का कहना है, “हमारी किताबों में हम जीते, उनकी किताबों में वो जीते।” ये अलग-अलग नैरेटिव बच्चों के दिमाग में एक-दूसरे के प्रति शत्रुता की भावना को और गहरा करते हैं।
नायकों का महिमामंडन: गांधी बनाम जिन्ना
राष्ट्रीय नायकों को लेकर भी दोनों देशों की किताबें अलग रास्ता अपनाती हैं। भारत में गांधी को “एक व्यक्ति की सेना” के रूप में दिखाया जाता है, जिन्होंने अहिंसा के रास्ते पर चलकर देश को आज़ादी दिलाई। जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं को भी स्वतंत्रता संग्राम के नायक के रूप में जगह दी जाती है। लेकिन जिन्ना को अक्सर एक ऐसे नेता के रूप में दिखाया जाता है, जिसने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया।
पाकिस्तान में जिन्ना “कायद-ए-आज़म” हैं, जिन्होंने मुस्लिम समुदाय के लिए एक अलग राष्ट्र का सपना देखा और उसे हकीकत में बदला। गांधी का ज़िक्र या तो न के बराबर होता है या फिर उन्हें एक हिंदू नेता के तौर पर दिखाया जाता है, जो मुस्लिम हितों के खिलाफ था। इस तरह के चित्रण से दोनों देशों के बच्चे एक-दूसरे के नायकों को खलनायक के रूप में देखने लगते हैं।
पाठ्यक्रम का डिज़ाइन: धर्म और राष्ट्रवाद का कॉकटेल
भारत और पाकिस्तान के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म और राष्ट्रवाद का गहरा प्रभाव दिखता है। पाकिस्तान में, खासकर जनरल ज़िया-उल-हक के शासन (1977-1988) के बाद, पाठ्यक्रम को “इस्लामीकरण” की दिशा में ढाला गया। किताबों में इस्लाम को राष्ट्रीय पहचान का आधार बनाया गया, और हिंदुओं को “दूसरे” के रूप में चित्रित किया गया। इतिहासकार तारिक रहमान का कहना है कि पाकिस्तानी किताबों में हिंदुओं को “चालाक” और “धोखेबाज़” जैसे शब्दों से नवाज़ा जाता है।
भारत में, NCERT की किताबें अपेक्षाकृत उदार दृष्टिकोण अपनाती हैं, लेकिन हाल के सालों में, खासकर 2014 के बाद, कुछ राज्यों में पाठ्यपुस्तकों में हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने की कोशिशें देखी गई हैं। मिसाल के तौर पर, कुछ किताबों में मुगल शासकों को नकारात्मक रूप में दिखाया गया, जबकि हिंदू राजाओं का महिमामंडन किया गया। हालांकि, NCERT ने अभी तक एक संतुलित दृष्टिकोण बनाए रखने की कोशिश की है।
राष्ट्रीय पहचान और सीमा पार धारणाओं पर असर
इन अलग-अलग नैरेटिव्स का असर सिर्फ़ किताबों तक सीमित नहीं है; ये बच्चों की राष्ट्रीय पहचान और एक-दूसरे के प्रति धारणाओं को भी आकार देते हैं। पाकिस्तान में, किताबें एक ऐसी राष्ट्रीय पहचान बनाती हैं, जो इस्लाम और भारत-विरोधी भावनाओं पर टिकी है। इससे बच्चे भारत को एक शाश्वत दुश्मन के रूप में देखने लगते हैं। भारत में, हालांकि किताबें ज़्यादा समावेशी हैं, लेकिन कुछ हद तक मुस्लिम लीग और जिन्ना के नकारात्मक चित्रण से पाकिस्तान के प्रति एक नकारात्मक छवि बनती है।
लंबे समय में, ये नैरेटिव दोनों देशों के बीच सुलह की संभावनाओं को कमज़ोर करते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक दोनों देश अपनी किताबों में एक-दूसरे को दुश्मन के रूप में चित्रित करते रहेंगे, तब तक सीमा पार की दोस्ती मुश्किल रहेगी। लेकिन कुछ उम्मीद की किरणें भी दिखती हैं। मसलन, पाकिस्तान में ‘हिस्ट्री प्रोजेक्ट’ जैसी पहल स्कूलों में बच्चों को दोनों देशों की किताबों की तुलना करने और आलोचनात्मक सोच विकसित करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
एक नई कहानी की ज़रूरत
भारत और पाकिस्तान की पाठ्यपुस्तकें सिर्फ़ इतिहास नहीं पढ़ातीं; वो एक ऐसी कहानी गढ़ती हैं, जो नई पीढ़ी के दिमाग में एक-दूसरे के प्रति नफ़रत और अविश्वास बोती है। अगर दोनों देश सचमुच शांति और दोस्ती की दिशा में बढ़ना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी किताबों को नए सिरे से लिखने की ज़रूरत है—ऐसी किताबें जो बंटवारे की त्रासदी को ईमानदारी से दिखाएं, युद्धों को महिमामंडन के बजाय सबक के रूप में पेश करें, और नायकों को इंसान के रूप में देखें, न कि देवताओं के रूप में। तब शायद, क्लासरूम में पढ़ाया जाने वाला इतिहास “Partition 2.0” की दीवार को तोड़कर, एक नई, साझा कहानी की शुरुआत कर सके।