जब से भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के तहत पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों पर सटीक सैन्य कार्रवाई की, दुनिया भर की नजरें इस क्षेत्र पर टिकी हैं। इस बीच, अज़रबैजान ने खुलकर पाकिस्तान का साथ दिया, जिसने भारत में हलचल मचा दी। अज़रबैजान, जो काकेशस क्षेत्र का एक छोटा सा देश है, ने न सिर्फ भारत की इस कार्रवाई की निंदा की, बल्कि पाकिस्तान के प्रति एकजुटता दिखाई। आखिर अज़रबैजान ने ऐसा क्यों किया? क्या इसके पीछे ऐतिहासिक रिश्ते, इस्लामी पहचान, या तुर्की का प्रभाव है? और सबसे बड़ा सवाल—इसका भारत-अज़रबैजान व्यापार, खासकर कच्चे तेल के निर्यात पर क्या असर पड़ेगा? आइए, इसकी तह तक जाते हैं।
ऐतिहासिक रिश्ते: अज़रबैजान और पाकिस्तान का पुराना याराना
अज़रबैजान और पाकिस्तान का रिश्ता कोई नया नहीं है। 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद जब अज़रबैजान आजाद हुआ, तो पाकिस्तान उन पहले देशों में था जिसने इसे मान्यता दी। इसके बाद से दोनों देशों के बीच गहरी दोस्ती रही। खासकर, आर्मेनिया के साथ अज़रबैजान के नागोर्नो-करबाख विवाद में पाकिस्तान ने हमेशा अज़रबैजान का खुलकर समर्थन किया। 2020 के नागोर्नो-करबाख युद्ध में पाकिस्तान ने न सिर्फ कूटनीतिक समर्थन दिया, बल्कि कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, सैन्य सहायता भी दी। दूसरी तरफ, भारत ने आर्मेनिया के साथ अपने रक्षा और व्यापारिक रिश्तों को मजबूत किया, जिससे अज़रबैजान की नाराजगी बढ़ी।
ये ऐतिहासिक रिश्ते आज भी अज़रबैजान के पाकिस्तान समर्थन का आधार हैं। जब भारत ने ऑपरेशन सिंदूर के जरिए लाइन ऑफ कंट्रोल पार आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया, तो अज़रबैजान ने इसे “आक्रामकता” करार दिया। अज़रबैजान की सरकारी मीडिया ने इसे “पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन” बताया, जिससे भारत में गुस्सा भड़का।
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इस्लामी पहचान: एकजुटता का बड़ा कारण
अज़रबैजान और पाकिस्तान के बीच इस्लामी पहचान एक मजबूत कड़ी है। अज़रबैजान, भले ही धर्मनिरपेक्ष देश हो, लेकिन इसकी 95% आबादी मुस्लिम है, और इस्लामी एकजुटता इसके विदेश नीति में अहम भूमिका निभाती है। पाकिस्तान, जो खुद को इस्लामी दुनिया का झंडाबरदार मानता है, ने हमेशा इस्लामी देशों के साथ गठजोड़ बनाए रखने की कोशिश की। ऑपरेशन सिंदूर के बाद, जब अज़रबैजान ने पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति दिखाई और पीड़ितों के लिए शोक जताया, तो इसमें इस्लामी एकजुटता का तड़का साफ दिखा।
भारत में कई लोगों ने सोशल मीडिया पर इसे “इस्लामी एकता” का खेल बताया। X पर कुछ पोस्ट्स में कहा गया कि अज़रबैजान का ये रुख सिर्फ पाकिस्तान के साथ दोस्ती नहीं, बल्कि भारत के खिलाफ इस्लामी देशों को एकजुट करने की कोशिश है। हालांकि, ये दावे पूरी तरह सही नहीं हो सकते, लेकिन इस्लामी पहचान ने अज़रबैजान के फैसले को जरूर प्रभावित किया।
तुर्की का प्रभाव: “थ्री ब्रदर्स” का गठजोड़
अज़रबैजान का पाकिस्तान समर्थन समझने के लिए तुर्की की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। तुर्की, अज़रबैजान और पाकिस्तान के बीच “थ्री ब्रदर्स” का नारा पिछले कुछ सालों में खूब उछला है। तुर्की और अज़रबैजान का रिश्ता भाषाई, सांस्कृतिक और सैन्य स्तर पर बेहद मजबूत है। 2020 के नागोर्नो-करबाख युद्ध में तुर्की ने अज़रबैजान को ड्रोन और सैन्य सहायता दी थी। उसी तरह, तुर्की ने पाकिस्तान को भी ड्रोन और हथियार मुहैया कराए, खासकर हाल के भारत-पाक तनाव में।
ऑपरेशन सिंदूर के बाद तुर्की ने भारत की कार्रवाई को “युद्ध की ओर बढ़ने वाला कदम” बताया, और अज़रबैजान ने भी यही लाइन दोहराई। तुर्की का प्रभाव साफ दिखता है, क्योंकि अज़रबैजान की विदेश नीति में तुर्की का दबदबा है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि तुर्की, जो भारत के साथ अपने रिश्तों को पहले ही तनावपूर्ण बना चुका है, अज़रबैजान को पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा करने में अहम भूमिका निभा रहा है।
अज़रबैजान की सरकारी मीडिया: भारत को विलेन बनाने की कोशिश
अज़रबैजान की सरकारी मीडिया ने ऑपरेशन सिंदूर को भारत की “आक्रामकता” के तौर पर पेश किया। वहां के प्रमुख समाचार चैनलों और अखबारों ने भारत के सैन्य अभियान को पाकिस्तान की संप्रभुता पर हमला बताया। कुछ रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि भारत की कार्रवाई ने क्षेत्रीय स्थिरता को खतरे में डाला। ये नैरेटिव भारत के लिए नया नहीं है, लेकिन अज़रबैजान जैसे छोटे देश से ऐसी तीखी प्रतिक्रिया ने कई लोगों को चौंकाया।
X पर भारतीय यूजर्स ने इसे “प्रोपेगैंडा” करार दिया। एक पोस्ट में लिखा गया, “अज़रबैजान की मीडिया तुर्की के इशारे पर नाच रही है। भारत ने आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की, लेकिन इसे आक्रामकता बता रहे हैं।” अज़रबैजान की सरकारी मीडिया की ये रणनीति तुर्की और पाकिस्तान के नैरेटिव को मजबूत करने की कोशिश लगती है, लेकिन इसने भारत के साथ उसके रिश्तों को और बिगाड़ दिया।
भारत-अज़रबैजान व्यापार: कच्चे तेल पर संकट के बादल
अब बात करते हैं सबसे अहम पहलू की—भारत और अज़रबैजान के बीच व्यापार पर इस तनाव का क्या असर पड़ेगा? अज़रबैजान भारत के लिए कच्चे तेल का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता है। 2024 में भारत ने अज़रबैजान से लगभग 2.5 मिलियन टन कच्चा तेल आयात किया, जो भारत की ऊर्जा जरूरतों का एक छोटा लेकिन अहम हिस्सा है। इसके अलावा, भारत अज़रबैजान से पेट्रोकेमिकल्स और अन्य उत्पाद भी आयात करता है।
लेकिन ऑपरेशन सिंदूर के बाद भारत में अज़रबैजान के खिलाफ गुस्सा बढ़ा है। सोशल मीडिया पर #BoycottAzerbaijan ट्रेंड करने लगा, और भारतीय पर्यटकों ने अज़रबैजान की यात्रा रद्द करनी शुरू कर दी। कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, भारत से अज़रबैजान जाने वाली उड़ानों में 60% की कमी आई है। इसके साथ ही, कई भारतीय व्यापारियों ने अज़रबैजान के साथ व्यापारिक रिश्ते तोड़ने की मांग की है।
कच्चे तेल के निर्यात पर इसका सीधा असर पड़ सकता है। भारत, जो पहले ही रूस और मध्य पूर्व से तेल आयात करता है, अज़रबैजान के तेल की जगह आसानी से विकल्प तलाश सकता है। लेकिन अज़रबैजान के लिए भारत एक बड़ा बाजार है, और इस तनाव से उसकी अर्थव्यवस्था को नुकसान हो सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर भारत अज़रबैजान से तेल आयात कम करता है, तो उसे रूस या सऊदी अरब जैसे देशों की ओर रुख करना होगा, जिससे वैश्विक तेल बाजार में हलचल मच सकती है।
क्या कहता है भविष्य?
अज़रबैजान का पाकिस्तान के साथ खड़ा होना एक रणनीतिक दांव है, लेकिन ये दांव जोखिम भरा भी है। भारत के साथ आर्थिक रिश्तों में तनाव से अज़रबैजान को नुकसान हो सकता है, खासकर तब जब उसकी अर्थव्यवस्था तेल निर्यात पर निर्भर है। दूसरी तरफ, तुर्की और पाकिस्तान के साथ गठजोड़ से अज़रबैजान को इस्लामी दुनिया में मजबूत स्थिति मिल सकती है, लेकिन भारत जैसे उभरते हुए आर्थिक महाशक्ति को नाराज करना महंगा पड़ सकता है।
भारत के लिए भी ये मौका है कि वो अपनी कूटनीति को और मजबूत करे। आर्मेनिया के साथ रिश्तों को और गहरा करने के साथ-साथ, भारत को उन देशों के साथ व्यापार बढ़ाने की जरूरत है जो उसके हितों का समर्थन करते हैं। अज़रबैजान के साथ रिश्ते सुधारने की गुंजाइश अभी बाकी है, लेकिन इसके लिए दोनों देशों को बातचीत की मेज पर आना होगा।
अज़रबैजान का पाकिस्तान समर्थन ऐतिहासिक दोस्ती, इस्लामी एकजुटता और तुर्की के प्रभाव का नतीजा है। लेकिन इस रुख ने भारत के साथ उसके रिश्तों को तनावपूर्ण बना दिया है। कच्चे तेल के व्यापार पर असर और भारतीय जनता का गुस्सा अज़रबैजान के लिए चुनौती बन सकता है। आने वाले दिन दिखाएंगे कि क्या ये रणनीतिक गठजोड़ अज़रबैजान के लिए फायदेमंद साबित होता है, या फिर भारत के साथ तनाव उसे भारी पड़ता है।
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