Caste Census and Muslim – भारत की सियासत में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम किसी तूफान से कम नहीं। चाहे वो 2014 का “सबका साथ, सबका विकास” हो या 2024 के बाद का “विकसित भारत” का नारा, मोदी हमेशा कुछ नया लाते हैं। अब ताजा मामला है “पसमांदा कार्ड” और कास्ट सेंसस ( Caste Census) का। ये क्या बवाल है? क्या मोदी सचमुच मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ने की जुगत में हैं ? या फिर पसमांदा मुसलमानों को सशक्त करने का कोई बड़ा प्लान है? आइए, इस सियासी खेल को समझते हैं, बिल्कुल देसी अंदाज में, ताकि बात दिल तक जाए।
मुस्लिम समाज में जाति: एक ऐतिहासिक झलक
इस्लाम की बुनियाद में तो जात-पात का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है। कुरान में साफ कहा गया है कि अल्लाह के सामने सब बराबर हैं। लेकिन भारत में इस्लाम का आगमन और हिंदू समाज के साथ मेलजोल ने इसे अलग रंग दे दिया। मुस्लिम समाज में तीन बड़े वर्ग बन गए: अशरफ (उच्च वर्ग, जैसे सैयद, शेख, पठान), अजलाफ (मध्य वर्ग, जैसे कुरैशी, अंसारी) और अरजाल (सबसे निचला वर्ग, जैसे सफाई कर्मी)। पसमांदा शब्द का इस्तेमाल अजलाफ और अरजाल के लिए होता है, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं।
ऐतिहासिक रूप से, अशरफ वो लोग थे जो विदेशी मूल (अरब, तुर्क, अफगान) का दावा करते थे और खुद को “शुद्ध” मुस्लिम मानते थे। वहीं, अजलाफ और अरजाल ज्यादातर हिंदू निचली जातियों से धर्मांतरण करने वाले थे, जिन्हें इस्लाम में आने के बाद भी वही भेदभाव झेलना पड़ा। 1871 की जनगणना के मुताबिक, 81% मुसलमान निचली जातियों से थे, जबकि सिर्फ 19% अशरफ थे। हाल के बिहार और तेलंगाना सर्वे में भी पसमांदा मुसलमान 73-81% तक पाए गए।
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सियासत का खेल: पसमांदा बनाम अशरफ
भारत में वोट की राजनीति में हर समुदाय को एक “वोट बैंक” की तरह देखा जाता है। मुस्लिम वोट को हमेशा एकजुट मानकर पार्टियां उसे अपने पाले में करने की जुगत लगाती थीं। लेकिन पसमांदा मुसलमानों की बढ़ती जागरूकता और जातिगत जनगणना की मांग ने इस खेल को बदल दिया। अब पार्टियां मुस्लिम समाज के अंदर की जातिगत दरार को भुनाने में जुट गई हैं।
जातिगत जनगणना: नया सियासी हथियार
2025 में केंद्र सरकार ने अगली जनगणना में जातिगत गणना को शामिल करने का ऐलान किया। इससे पहले बिहार, तेलंगाना और असम जैसे राज्यों ने अपने स्तर पर जाति सर्वे करवाए। इन सर्वे ने साफ किया कि मुस्लिम समाज में अनुमान के मुताबिक 70-75% पसमांदा हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं।
जातिगत जनगणना का सबसे बड़ा फायदा ये है कि ये आंकड़े पसमांदा मुसलमानों को उनकी ताकत का अहसास दिलाएंगे। ऑल इंडिया मुस्लिम जमात के अध्यक्ष मौलाना शहाबुद्दीन रजवी कहते हैं कि इससे साफ होगा कि कौन-सी जातियां “आल्हा” (उच्च) और कौन-सी “अदना” (निम्न) हैं। बीजेपी इसे पसमांदा मुसलमानों को दलित कैटेगरी में गिनने का मौका मान रही है, ताकि वो आरक्षण और दूसरी सुविधाओं का लाभ ले सकें।
पसमांदा मुसलमान: ये कौन हैं, भाई जान?
सबसे पहले तो समझ लें कि पसमांदा मुसलमान कौन हैं। “पसमांदा” शब्द फारसी से आया है, जिसका मतलब है “पिछड़ा हुआ”। भारत में मुस्लिम समाज भी जातियों में बंटा है, ठीक हिंदू समाज की तरह। मुस्लिम आबादी का करीब 75% हिस्सा पसमांदा कहलाता है, जिसमें दलित और पिछड़ी जातियां जैसे अंसारी, कुरैशी, सलमानी, राईन, घोसी वगैरह शामिल हैं। ये लोग सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक तौर पर हाशिए पर रहे हैं। बाकी 25% ऊंची जाति के मुसलमान, जैसे सैयद, शेख, पठान, वगैरह, ज्यादातर सत्ता और संसाधनों पर कब्जा जमाए बैठे हैं।
पसमांदा मुसलमानों की हालत ऐसी है कि इनका नाम तक मुस्लिम नेतृत्व में कम सुनाई देता है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड हो या वक्फ बोर्ड, इनमें पसमांदा की हिस्सेदारी ना के बराबर है। तो सवाल ये है कि मोदी इस समुदाय को क्यों टारगेट कर रहे हैं?
अशराफ, अजलाफ, और अरज़ाल: सामाजिक ढांचे की नई परतें
भारतीय मुसलमानों में सामाजिक बंटवारा तीन मुख्य श्रेणियों में देखा जाता है: अशराफ, अजलाफ, और अरज़ाल। ये श्रेणियां इस्लाम के बराबरी वाले सिद्धांतों से कम और स्थानीय सामाजिक परंपराओं से ज्यादा प्रभावित थीं।
अशराफ: ये वो लोग हैं, जो खुद को अरब, तुर्क, फारसी, या अफगान मूल का मानते हैं। इसमें सैयद, शेख, पठान, और मुगल जैसे समूह शामिल हैं। अशराफ को ऊंचा दर्जा मिला, क्योंकि वो या तो विदेशी थे या खुद को हिंदू समाज की ऊंची जातियों, जैसे राजपूतों, से जोड़ते थे। ये लोग ज्यादातर जमींदार, उलेमा, या सल्तनत के प्रशासक थे।
अजलाफ: ये वो मुसलमान हैं, जो हिंदू समाज की मध्यम या निचली जातियों यानि ओबीसी से इस्लाम में आए। इसमें जुलाहे (अंसारी), नाई (हज्जाम), कसाई (कुरैशी), और अन्य कारीगर शामिल हैं। इन्हें अशराफ से कम दर्जा मिला, लेकिन अरज़ाल से बेहतर माना गया।
अरज़ाल: ये सबसे निचला वर्ग है, जिसमें सफाई कर्मी (हलाल खोर), धोबी, और अन्य “अछूत” पेशों से जुड़े लोग शामिल हैं। इनका सामाजिक बहिष्कार सबसे ज्यादा हुआ। कई जगह इन्हें अलग कब्रिस्तानों में दफनाया जाता है, जो हिंदू समाज के अछूतों जैसी स्थिति को दर्शाता है।
ये बंटवारा हिंदू जाति व्यवस्था से प्रेरित था। अशराफ खुद को ब्राह्मण या क्षत्रिय जैसा मानते थे, जबकि अरज़ाल को शूद्रों की तरह देखा गया। लेकिन इस्लाम में छुआछूत हिंदू समाज जितनी सख्त नहीं थी। मस्जिद में सभी एक साथ नमाज पढ़ते थे, जो हिंदू मंदिरों में असंभव था।
मोदी का पसमांदा फोकस: पुरानी कहानी, नया ट्विस्ट
मोदी का पसमांदा प्रेम कोई नया नहीं है। गुजरात के सीएम रहते हुए उन्होंने पसमांदा और बोहरा मुसलमानों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश शुरू कर दी थी। बोहरा समुदाय, जो व्यापारी और पढ़ा-लिखा है, को उन्होंने व्यापारिक नीतियों से लुभाया, जबकि पसमांदा को जन कल्याणकारी योजनाओं का लालच दिया। 2022 में हैदराबाद की बीजेपी मीटिंग में मोदी ने साफ कहा, “हमें सिर्फ हिंदुओं तक नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों के पिछड़े तबके तक पहुंचना है।”
2023 में भोपाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए मोदी ने पसमांदा मुसलमानों की बदहाली का जिक्र किया और कहा कि वोट बैंक की सियासत ने इनका जीना मुश्किल कर रखा है। फिर 2025 में वक्फ संशोधन बिल आया, जिसमें हर वक्फ बोर्ड में दो पसमांदा सदस्यों को शामिल करने का प्रावधान किया गया। ये कदम दिखाता है कि बीजेपी का फोकस सिर्फ बातों तक सीमित नहीं, बल्कि नीतिगत स्तर पर भी है।
कास्ट सेंसस: सियासी मास्टरस्ट्रोक या डिवाइड एंड रूल?
अब बात करते हैं कास्ट सेंसस की। 2025 में मोदी सरकार ने पहली बार मुस्लिम समाज में जातिगत जनगणना का फैसला लिया। ये कोई छोटा-मोटा कदम नहीं है। अभी तक जनगणना में मुसलमानों को एकसमान माना जाता था, लेकिन अब उनकी जातियों की गिनती होगी, ठीक वैसे ही जैसे हिंदुओं की। इसका मतलब है कि पसमांदा, अशराफ, और दूसरी मुस्लिम जातियों की सटीक संख्या सामने आएगी।
कई लोग इसे मोदी का मास्टरस्ट्रोक मान रहे हैं। X पर कुछ यूजर्स का कहना है कि इससे न सिर्फ मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगेगी, बल्कि हिंदुओं को जातियों में बांटने का विपक्ष का प्लान भी फेल हो जाएगा। लेकिन ये इतना सीधा नहीं है। आइए, इसके सियासी मकसद को तोड़कर समझें:
मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ना: यूपी, बिहार, और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में मुस्लिम वोट निर्णायक हैं। समाजवादी पार्टी, कांग्रेस, और टीएमसी जैसी पार्टियां इस वोट बैंक को एकजुट रखने की कोशिश करती हैं। लेकिन कास्ट सेंसस से पसमांदा मुसलमानों की अलग पहचान बनेगी, और वो अपनी हिस्सेदारी मांग सकते हैं। इससे विपक्ष का “मुस्लिम एकता” का नैरेटिव कमजोर पड़ सकता है।
पसमांदा को सशक्त करना: बीजेपी का दावा है कि वो पसमांदा मुसलमानों को मुख्य धारा में लाना चाहती है। यूपी में योगी सरकार ने दानिश आजाद अंसारी जैसे पसमांदा नेताओं को मंत्री बनाया। कास्ट सेंसस से पसमांदा की सटीक आबादी पता चलेगी, जिसके आधार पर उन्हें आरक्षण, योजनाएं, और राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल सकता है। ये कदम पसमांदा को बीजेपी के करीब ला सकता है।
2029 से पहले नया गठजोड़: 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को यूपी, बिहार जैसे राज्यों में ओबीसी और दलित वोटों का नुकसान हुआ। अब 2029 की तैयारी में बीजेपी कास्ट सेंसस के जरिए नया सामाजिक गठजोड़ बनाना चाहती है। पसमांदा मुसलमानों को ओबीसी और दलित हिंदुओं के साथ जोड़कर बीजेपी एक नया वोट बैंक बना सकती है।
क्या है असली मकसद?
तो क्या ये सब 2029 के लिए बीजेपी का सियासी दांव है? जवाब हां भी है और ना भी। हां, क्योंकि बीजेपी को पता है कि बिना अल्पसंख्यक वोटों के 50% वोट शेयर का लक्ष्य मुश्किल है। पसमांदा मुसलमान, जो 75% मुस्लिम आबादी का हिस्सा हैं, एक बड़ा वोट बैंक हो सकते हैं। ना, क्योंकि ये सिर्फ वोट की सियासत नहीं, बल्कि सामाजिक बदलाव का भी मसला है। पसमांदा को सशक्त करने से बीजेपी “सबका साथ, सबका विकास” के अपने वादे को मजबूती दे सकती है।
नई सियासत का आगाज ?
मोदी का पसमांदा कार्ड और कास्ट सेंसस भारत की सियासत में एक नया अध्याय शुरू कर सकता है। ये कदम मुस्लिम वोट बैंक को तोड़ने, पसमांदा को सशक्त करने, और 2029 के लिए नए गठजोड़ बनाने का मिश्रण है। लेकिन इसका असर कितना गहरा होगा, ये पसमांदा समुदाय की जागरूकता और विपक्ष की रणनीति पर निर्भर करता है। एक बात तो साफ है—मोदी ने फिर से सियासी शतरंज पर ऐसी चाल चली है, जिसका जवाब देना विपक्ष के लिए आसान नहीं होगा।
तो, आप क्या सोचते हैं? क्या ये पसमांदा कार्ड बीजेपी का ट्रंप कार्ड साबित होगा, या फिर ये सियासी जुआ उल्टा पड़ जाएगा?
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