Defence market- एशिया, खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र, आज दुनिया का सबसे गर्म भू-राजनीतिक मंच बन चुका है। एक तरफ चीन अपनी ताकत बढ़ाने के लिए रूस और ईरान जैसे देशों के साथ मिलकर सुरक्षा नेटवर्क को मज़बूत कर रहा है, तो दूसरी तरफ अमेरिका अपने सहयोगियों के साथ मिलकर Indo-Pacific में अपनी पकड़ को और मजबूत करने की कोशिश में है। दोनों महाशक्तियां इस क्षेत्र में ‘सुरक्षा बाजार’ को अपने कब्जे में लेने की होड़ में हैं। लेकिन सवाल ये है कि इस जंग में कौन बाजी मार रहा है? और हथियारों का खेल कैसे इस तस्वीर को बदल रहा है? आइए, इस मसले को गहराई से समझते हैं।
चीन का Defence Network: रूस और ईरान के साथ गठजोड़
चीन पिछले कुछ सालों में एशिया में अपनी सैन्य और सामरिक ताकत को तेज़ी से बढ़ा रहा है। वो न सिर्फ अपनी सेना को मॉडर्न कर रहा है, बल्कि रूस और ईरान जैसे देशों के साथ मिलकर एक ऐसा नेटवर्क बना रहा है, जो अमेरिकी प्रभाव को चुनौती दे सके। हाल ही में मार्च 2025 में, चीन, रूस और ईरान ने हिंद महासागर के पास चाबहार बंदरगाह के करीब ‘सुरक्षा बेल्ट-2025’ नाम से एक संयुक्त सैन्य अभ्यास किया। ये अभ्यास साफ तौर पर अमेरिका को संदेश देता है कि ये तीनों देश मिलकर हिंद-प्रशांत में एक नया पावर ब्लॉक तैयार कर रहे हैं।
चीन का फोकस साउथ चाइना सी और हिंद महासागर पर है। वो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत कई देशों में बंदरगाह, सड़कें और इन्फ्रास्ट्रक्चर बना रहा है, जिसके पीछे आर्थिक के साथ-साथ सैन्य मकसद भी हैं। मिसाल के तौर पर, पाकिस्तान में ग्वादर पोर्ट और श्रीलंका में हंबनटोटा पोर्ट को चीन ने अपने कब्जे में ले लिया है, जिससे वो हिंद महासागर में अपनी नौसेना की मौजूदगी बढ़ा रहा है। इसके अलावा, रूस के साथ मिलकर वो आर्कटिक रीजन में भी नई सैन्य रणनीतियां बना रहा है।
ईरान के साथ चीन का रिश्ता और भी गहरा हो रहा है। ईरान को हथियारों और तकनीक की सप्लाई में चीन की भूमिका बढ़ रही है। कुछ रिपोर्ट्स का दावा है कि ईरान के ड्रोन प्रोग्राम में चीन की टेक्नोलॉजी का बड़ा हाथ है। ये तिकड़ी (चीन-रूस-ईरान) मिलकर न सिर्फ मिडिल ईस्ट बल्कि एशिया में भी एक वैकल्पिक सुरक्षा ढांचा खड़ा करने की कोशिश कर रही है, जो अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए बड़ा खतरा बन सकता है।
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अमेरिका की Indo-Pacific रणनीति: सहयोगियों का जाल
उधर, अमेरिका भी चुप नहीं बैठा है। उसने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपनी स्थिति को मज़बूत करने के लिए एक नया सुरक्षा ढांचा तैयार किया है। क्वाड (QUAD – अमेरिका, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया) और ऑकस (AUKUS – अमेरिका, यूके, ऑस्ट्रेलिया) जैसे गठबंधन इसकी मिसाल हैं। अमेरिका का मकसद है कि वो अपने सहयोगियों को एकजुट करके चीन के बढ़ते प्रभाव को रोके।
हाल ही में, अगस्त 2024 में अमेरिका ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में AIM-174B मिसाइल तैनात की, जो 400 किलोमीटर की दूरी तक हवा से हवा में मार कर सकती है। ये मिसाइल चीन की नौसेना और वायुसेना के लिए एक बड़ा खतरा है। इसके अलावा, अमेरिका जापान, दक्षिण कोरिया और फिलीपींस जैसे देशों में अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ा रहा है। मिसाल के तौर पर, अमेरिका ने जापान में अपने सैनिकों की संख्या बढ़ाई है और दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर सैन्य अभ्यास कर रहा है।
अमेरिका का फोकस न सिर्फ सैन्य ताकत बढ़ाने पर है, बल्कि वो साइबर और तकनीकी क्षेत्र में भी चीन को टक्कर दे रहा है। मार्च 2025 की एक यूएस खुफिया रिपोर्ट के मुताबिक, चीन की सैन्य और साइबर क्षमताएं अमेरिका के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। अमेरिका ने इसके जवाब में अपने सहयोगियों के साथ साइबर सिक्योरिटी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) जैसे क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाया है।
हथियारों की दौड़: कौन किसे दे रहा है?
अब बात करते हैं हथियारों की। वैश्विक हथियार बाजार में चीन और अमेरिका दोनों ही बड़े खिलाड़ी हैं। स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (SIPRI) की 2020-2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है, जिसका हिस्सा वैश्विक हथियार व्यापार का 42% है। वहीं, चीन इस लिस्ट में चौथे नंबर पर है, लेकिन उसका प्रभाव तेज़ी से बढ़ रहा है, खासकर एशिया और अफ्रीका में।
अमेरिका के हथियार निर्यात
जापान: अमेरिका ने जापान को F-35 फाइटर जेट्स, मिसाइल डिफेंस सिस्टम और नौसैनिक उपकरण दिए हैं।
दक्षिण कोरिया: THAAD मिसाइल डिफेंस सिस्टम और उन्नत ड्रोन तकनीक।
भारत: भारत को अपाचे हेलिकॉप्टर, P-8I पोसाइडन विमान और ड्रोन जैसे MQ-9 रीपर दिए गए हैं।
ताइवान: अमेरिका ताइवान को पैट्रियट मिसाइल सिस्टम और F-16 जेट्स की सप्लाई कर रहा है, जो चीन के लिए बड़ा सिरदर्द है।
चीन के हथियार निर्यात
पाकिस्तान: चीन ने पाकिस्तान को JF-17 थंडर फाइटर जेट्स, टाइप-054A फ्रिगेट्स और ड्रोन टेक्नोलॉजी दी है।
ईरान: ड्रोन और मिसाइल टेक्नोलॉजी में चीन की मदद की खबरें हैं, हालांकि आधिकारिक आंकड़े कम हैं।
म्यांमार और बांग्लादेश: चीन ने इन देशों को छोटे हथियार, नौसैनिक जहाज और फाइटर जेट्स दिए हैं।
SIPRI के आंकड़ों के मुताबिक, 2020-2024 में चीन के हथियार निर्यात में 38% की बढ़ोतरी हुई, जबकि अमेरिका का निर्यात स्थिर रहा। लेकिन अमेरिका की ताकत उसके उन्नत हथियारों और तकनीक में है, जो अभी भी चीन से आगे है।
भारत का रोल: तटस्थ या ताकतवर?
इस जंग में भारत की स्थिति खास है। भारत न तो पूरी तरह अमेरिका के साथ है और न ही चीन के। वो रूस से अपने पुराने रिश्तों को बनाए रखते हुए अमेरिका के साथ भी रणनीतिक साझेदारी बढ़ा रहा है। भारत का क्वाड में शामिल होना और अमेरिका से हथियार खरीदना चीन के लिए चिंता का सबब है, लेकिन रूस से S-400 मिसाइल सिस्टम और अन्य हथियारों की खरीद दिखाती है कि भारत अपनी स्वतंत्र नीति पर कायम है।
चीन, भारत के साथ अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में तनाव पैदा कर रहा है, जिसे एक हालिया रिपोर्ट में भारत के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक खतरा बताया गया है। लेकिन भारत भी अपनी सैन्य ताकत को तेज़ी से बढ़ा रहा है। ब्रह्मोस मिसाइल, स्वदेशी तेजस फाइटर जेट और अग्नि मिसाइल जैसे प्रोजेक्ट्स भारत को क्षेत्रीय ताकत बना रहे हैं।
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कौन जीत रहा है?
फिलहाल, इस ‘Defence market ‘ की जंग में न तो चीन और न ही अमेरिका पूरी तरह हावी है। अमेरिका की ताकत उसके वैश्विक गठबंधनों, उन्नत तकनीक और सैन्य ठिकानों में है। वहीं, चीन का दम उसकी तेज़ी से बढ़ती सैन्य क्षमता, आर्थिक प्रभाव और रूस-ईरान जैसे सहयोगियों में है। लेकिन इस खेल में छोटे देशों की भूमिका भी अहम है। भारत, जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देश अपने हितों को ध्यान में रखकर दोनों महाशक्तियों के साथ बैलेंस बना रहे हैं।
हथियारों की दौड़ और सैन्य अभ्यासों से साफ है कि एशिया में तनाव बढ़ रहा है। अगर ये जंग और तेज़ हुई, तो इसका असर न सिर्फ एशिया बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा। सवाल ये है कि क्या ये दोनों ताकतें टकराव की राह पर जाएंगी या सहयोग का कोई रास्ता निकलेगा? ये तो वक्त ही बताएगा।